[महाभारत में यक्ष-युधिस्ठिर संवाद में माता को पृथ्वी से विशाल और पिता को आकाश से ऊंचा पद प्रदान किया गया है| प्रस्तुत कविता में धरती को ममतामई मान और आकाश को पिता के रूप में दिखलाया गया है| धरती और आकाश जीवन के लिए कितने उपयोगी हैं, यह बतलाने की आवश्यकता नहीं है| किन्तु हम नालायक शरारती बच्चों की तरह इन्हें कितना प्रदूषित कर रहे हैं, इसकी ओर भी इंगित किया गया है| धरती और आकाश के बहाने कवि ने अपने माता-पिता को भी याद किया है| - जयनाथ प्रसाद (सात्विक) ]
हे धरती माँ! किसने तेरी
महिमा है अवगाही ?
तेरी करूणा की किसने है
थाह अभी तक पाई ?
तेरे तन को गन्दा करते
हम उछालते कर्दम,
फिर भी तू करुणा की प्रतिमा
बनी रही ही हरदम|
हम तो स्वांग रचाते रहते
अज्ञ बने से तुझसे,
पर तू तो न्योछावर करती
तन-मन-धन सब हम पर|
तू तो है अति दयावती,
वात्सल्य, स्नेह की प्रतिमा
तेरे गुणगानो की छमता,
नहीं, नहीं है प्रतिभा|
छमाशील, अति ममता वाली,
गहे बाँह तू सबकी
तपती जीवन-दोपहरी मेंकरे छाँह तू सबकी|
तेरे तन पर शोभित जो हैं
ताल तलैया, झीलें;
सर, समुद्र, सरितायें एवं
उच्च शिखर बर्फीले|
ये सब तेरी करुणा की
कहते अमिट कहानी,
निर्झर, नद, नाले सब तेरीहैं वात्सल्य-निसानी|
रात्रि-प्रहर में सर-सर बहता
पवन तुम्हारी लोरी,
कल-कल, छल-छल बहती नदियाँ
सुख-स्वप्नों में बोरी|
अरुणोदय पावन वेला में
विहंगों का जो कलरव,
ये सब गीत सुहाने तेरे
युग-युग से, पर अभिनव |
हम मानव तो माँ! तेरे हों
पुत्र, कुपुत्र भले ही,
लांछन लगा नहीं ही|
औ' अनंत आकाश! तुम्हारी
गोदी वैभवशाली
नभगंगा, तारों, सूर्यों की
प्रभा-मण्डलों वाली|
तुम समेटे निस्सीम ज्योति को
भूपरि तने हुए हो,
प्राणों में उर्जा भरकर
जीवों के जनक बने हो|
तुम्ही प्राणियों में नित अपनी
जीवन-ज्योति जलाते
और हमारे ज्ञान-चक्षु को
आभा में नहलाते|
लगता वरदहस्त हो रखते
सिर पर सदा हमारे
जीवन-ज्योति जगाने वाले
पिता-तुल्य तुम न्यारे|
तुम निज प्रखर करों से भू के
सिने को पिघलते
औ' असीम आनंद-स्त्रोत गो
उसमे सदा बहते|
जो नद-निर्झर-विग्रह धरकर
हमको जीवन देते,
धन-वैभव से भरकर हमको
पुस्ता हमें कर देते|
लेखक - जयनाथ प्रसाद 'सात्विक'
२२/९ केरेलाबाग कालोनी,
इलाहाबाद, पिन - 211003
हे धरती माँ! किसने तेरी
महिमा है अवगाही ?
तेरी करूणा की किसने है
थाह अभी तक पाई ?
तेरे तन को गन्दा करते
हम उछालते कर्दम,
फिर भी तू करुणा की प्रतिमा
बनी रही ही हरदम|
हम तो स्वांग रचाते रहते
अज्ञ बने से तुझसे,
पर तू तो न्योछावर करती
तन-मन-धन सब हम पर|
तू तो है अति दयावती,
वात्सल्य, स्नेह की प्रतिमा
तेरे गुणगानो की छमता,
नहीं, नहीं है प्रतिभा|
छमाशील, अति ममता वाली,
गहे बाँह तू सबकी
तपती जीवन-दोपहरी मेंकरे छाँह तू सबकी|
तेरे तन पर शोभित जो हैं
ताल तलैया, झीलें;
सर, समुद्र, सरितायें एवं
उच्च शिखर बर्फीले|
ये सब तेरी करुणा की
कहते अमिट कहानी,
निर्झर, नद, नाले सब तेरीहैं वात्सल्य-निसानी|
रात्रि-प्रहर में सर-सर बहता
पवन तुम्हारी लोरी,
कल-कल, छल-छल बहती नदियाँ
सुख-स्वप्नों में बोरी|
अरुणोदय पावन वेला में
विहंगों का जो कलरव,
ये सब गीत सुहाने तेरे
युग-युग से, पर अभिनव |
हम मानव तो माँ! तेरे हों
पुत्र, कुपुत्र भले ही,
लांछन लगा नहीं ही|
औ' अनंत आकाश! तुम्हारी
गोदी वैभवशाली
नभगंगा, तारों, सूर्यों की
प्रभा-मण्डलों वाली|
तुम समेटे निस्सीम ज्योति को
भूपरि तने हुए हो,
प्राणों में उर्जा भरकर
जीवों के जनक बने हो|
तुम्ही प्राणियों में नित अपनी
जीवन-ज्योति जलाते
और हमारे ज्ञान-चक्षु को
आभा में नहलाते|
लगता वरदहस्त हो रखते
सिर पर सदा हमारे
जीवन-ज्योति जगाने वाले
पिता-तुल्य तुम न्यारे|
तुम निज प्रखर करों से भू के
सिने को पिघलते
औ' असीम आनंद-स्त्रोत गो
उसमे सदा बहते|
जो नद-निर्झर-विग्रह धरकर
हमको जीवन देते,
धन-वैभव से भरकर हमको
पुस्ता हमें कर देते|
लेखक - जयनाथ प्रसाद 'सात्विक'
२२/९ केरेलाबाग कालोनी,
इलाहाबाद, पिन - 211003
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